नवंबर 25, 2006

गज़ल...



कोई रस्ता है न मंज़िल न तो घर है कोई
आप कहिएगा सफ़र ये भी सफ़र है कोई

'पास-बुक' पर तो नज़र है कि कहाँ रक्खी है
प्यार के ख़त का पता है न ख़बर है कोई

ठोकरें दे के तुझे उसने तो समझाया बहुत
एक ठोकर का भी क्या तुझपे असर है कोई

रात-दिन अपने इशारों पे नचाता है मुझे
मैंने देखा तो नहीं, मुझमें मगर है कोई

एक भी दिल में न उतरी, न कोई दोस्त बना
यार तू यह तो बता यह भी नज़र है कोई

प्यार से हाथ मिलाने से ही पुल बनते हैं
काट दो, काट दो गर दिल में भँवर है कोई

मौत दीवार है, दीवार के उस पार से अब
मुझको रह-रह के बुलाता है उधर है कोई

सारी दुनिया में लुटाता ही रहा प्यार अपना
कौन है, सुनते हैं, बेचैन 'कुँअर' है कोई


डॉ० कुँअर बेचैन

नवंबर 17, 2006

मध्मवर्गीय पत्नी से

हमारे मध्यमवर्गीय परिवारों में एक शब्द बड़ा ही महत्वपूर्ण होता है और वह है 'कल' सारे काम उसके कल पर ही टाले जाते हैं बच्चों की फीस जमा करनी है तो यही कहा जायेगा 'कल चली जायेगी' आटा पिसाकर लाना है तो कहा जायेगा 'कल जरूर पिस जायेगा' इस प्रकार मध्यमवर्गीय परिवारों में इस 'कल' शब्द का बहुत महत्व है मध्यमवर्गीय व्यक्ति चाहे घर में कुछ भी न हो मगर घर से बाहर बड़ा टिप टॉप होकर निकलना चाहता है इस गीत का पहला पद इसी बात पर आधारित है। दूसरी बात मध्यमवर्गीय व्यक्ति की ज़िंदगी में ये है कि वह घर से पूरी तरह जुड़ा रहकर भी घर में नहीं रह पाता क्योंकि उसे घर की जिम्मेदारियों के लिये घर से बाहर रहना पड़ता है कमायेगा नहीं तो खिलायेगा क्या? वो घर से बाहर रहकर ही घर बना सकता है उसकी इसी विडम्बना पर ये गीत आधारित है-




कल समय की व्यस्तताओं से निकालूँगा समय कुछ
फिर भरुँगा खुद तुम्हारी माँग में सिन्दूर
मुझको माफ़ करना
आज तो इस वक्त काफी देर ऑफिस को हुई है

हाँ जरा सुनना वो मेरी पेंट है न

वो फटी है जो अकेले पाँयचों पर

तुम जरा उसमें लगाकर चन्द टाँके
शर्ट के टूटे बटन भी टाँक देना

इस तरह से, जो नई हर कोई आँके

कल थमे वातावरण से, मैं निकालूँगा प्रलय कुछ

ले चलूँगा फिर तुम्हें इस भीड़ से भी दूर

मुझको माफ करना

आज तो इस वक्त काफी देर, ग्यारह पर सुई है

क्या कहा, है आज पप्पू का जन्मदिन

तुम सुनो, ये बात पप्पू से न कहना

और दिन भर तुम उसी के पास रहना

यदि करे तुमको परेशां, मारना मत

और हाँ, तुम भी कहीं मन हारना मत

कल पराजय के जलधि से, मैं निकालूँगा विजय कुछ

फिर मनायेंगे जन्मदिन की खुशी भरपूर

मुझको माफ करना

आज तो ये जेब भी मेरी फटेपन ने छुई है


डॉ० कुअँर बेचैन

नवंबर 08, 2006

नव-गीत















अधर-अधर को ढूँढ रही है
ये भोली मुस्कान
जैसे कोई महानगर में ढूँढे नया मकान

नयन-गेह से निकले आँसू
ऐसे डरे-डरे
भीड़ भरा चौराहा जैसे
कोई पार करे

मन है एक, हजारों जिसमें
बैठे हैं तूफान
जैसे एक कक्ष के घर में रुकें कई मेहमान

साँसों के पीछे बैठे हैं
नये-नये खतरे
जैसे लगें जेब के पीछे
कई जेब-कतरे

तन-मन में रहती है हरदम
कोई नयी थकान
जैसे रहे पिता के घर पर विधवा सुता जवान

डॉ० कुँअर बेचैन