अधर-अधर को ढूँढ रही है
ये भोली मुस्कान
ये भोली मुस्कान
जैसे कोई महानगर में ढूँढे नया मकान
नयन-गेह से निकले आँसू
ऐसे डरे-डरे
भीड़ भरा चौराहा जैसे
कोई पार करे
मन है एक, हजारों जिसमें
मन है एक, हजारों जिसमें
बैठे हैं तूफान
जैसे एक कक्ष के घर में रुकें कई मेहमान
जैसे एक कक्ष के घर में रुकें कई मेहमान
साँसों के पीछे बैठे हैं
नये-नये खतरे
जैसे लगें जेब के पीछे
जैसे लगें जेब के पीछे
कई जेब-कतरे
तन-मन में रहती है हरदम
कोई नयी थकान
कोई नयी थकान
जैसे रहे पिता के घर पर विधवा सुता जवान
डॉ० कुँअर बेचैन
1 टिप्पणी:
नमन.आपकी लोकप्रियता की तरह बेजोड़ रचना.
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